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अश्वा॑वति प्रथ॒मो गोषु॑ गच्छति सुप्रा॒वीरि॑न्द्र॒ मर्त्य॒स्तवो॒तिभिः॑। तमित्पृ॑णक्षि॒ वसु॑ना॒ भवी॑यसा॒ सिन्धु॒मापो॒ यथा॒भितो॒ विचे॑तसः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

aśvāvati prathamo goṣu gacchati suprāvīr indra martyas tavotibhiḥ | tam it pṛṇakṣi vasunā bhavīyasā sindhum āpo yathābhito vicetasaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अश्व॑ऽवति। प्र॒थ॒मः। गोषु॑। ग॒च्छ॒ति॒। सु॒प्र॒ऽआ॒वीः। इ॒न्द्र॒। मर्त्यः॑। तव॑। ऊ॒तिऽभिः॑। तम्। इत्। पृ॒ण॒क्षि॒। वसु॑ना। भवी॑यसा। सिन्धु॑म्। आपः॑। यथा॑। अ॒भितः॑। विऽचे॑तसः ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:83» मन्त्र:1 | अष्टक:1» अध्याय:6» वर्ग:4» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:13» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह कैसे रथ में बैठा हुआ कामों को सिद्ध करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) सबकी रक्षा करनेहारे राजन् ! जो (मर्त्यः) अच्छी शिक्षायुक्त धार्मिक मनुष्य (तव) तेरी (ऊतिभिः) रक्षा आदि से रक्षित भृत्य (अश्वावति) उत्तम घोड़ों से युक्त रथ में बैठ के (गोषु) पृथिवी विभागों में युद्ध के लिये (प्रथमः) प्रथम (गच्छति) जाता है, उससे तू प्रजाओं को (सुप्रावीः) अच्छे प्रकार रक्षा कर (तमित्) उसी को (यथा) जैसे (विचेतसः) चेतनता रहित जड़ (आपः) जल वा वायु (अभितः) चारों ओर से (सिन्धुम्) नदी को प्राप्त होते हैं, जैसे (भवीयसा) अत्यन्त उत्तम (वसुना) धन से तू प्रजा को (पृणक्षि) युक्त करता है, वैसे ही सब प्रजा और राजपुरुष पुरुषार्थ करके ऐश्वर्य से संयुक्त हों ॥ १ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। सेनापति आदि राजपुरुषों को योग्य है कि जो भृत्य अपने-अपने अधिकार के कर्मों में यथायोग्य न वर्त्तें, उन-उन को अच्छे प्रकार दण्ड और जो न्याय के अनुकूल वर्त्तें, उनका सत्कार कर शत्रुओं को जीत प्रजा की रक्षा कर पुरुषों को प्रसन्न रखके राजकार्यों को सिद्ध करना चाहिये। कोई भी पुरुष अपराधी के योग्य दण्ड और अच्छे कर्मकर्त्ता के योग्य प्रतिष्ठा किये विना यथावत् राज्य की व्यवस्था को स्थिर करने को समर्थ नहीं हो सकता, इससे इस कर्म का अनुष्ठान सदा करना चाहिये ॥ १ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृशे रथे तिष्ठन्कार्याणि साधयेदित्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

हे इन्द्र ! यो मर्त्त्यस्तवोतिभिः सह वर्त्तमानो भृत्योऽश्वावति रथे स्थित्वा गोषु युद्धाय प्रथमो गच्छति तेन त्वं प्रजाः सुप्रावीस्तमिद्यथा विचेतस आपोऽभितः सिन्धुमाप्नुवन्ति यथा भवीयसा वसुना सह प्रजाः पृणक्षि संयुनक्षि तथैव सर्वे संयुजन्तु ॥ १ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अश्वावति) संबद्धा अश्वा यस्मिंस्तस्मिन् रथे (प्रथमः) आदिमो भूमिगमनार्थो रथः (गोषु) पृथिवीषु (गच्छति) चलति (सुप्रावीः) सुष्ठु प्रजारक्षाकर्त्ता (इन्द्र) परमैश्वर्यप्रापकसेनापते ! (मर्त्यः) सुशिक्षितो धार्मिको भृत्यो मनुष्यः (तव) (ऊतिभिः) रक्षणादिभिः (तम्) (इत्) एव (पृणक्षि) संयुनक्षि (वसुना) प्रशस्तेन धनेन (भवीयसा) यदतिशयितं भवति तेन (सिन्धुम्) समुद्रं नदीं वा (आपः) जलानि (यथा) येन प्रकारेण (अभितः) सर्वतः (विचेतसः) विगतं चेतः संज्ञानं याभ्यस्ताः ॥ १ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। सेनाध्यक्षादिभी राजपुरुषैर्ये भृत्याः स्वस्वाऽधिकृतेषु कर्मसु यथावन्न वर्त्तेरन् तान् सुदण्ड्य ये चानुवर्त्तेरंस्तान् सुसत्कृत्य बहुभिरुत्तमैः पदार्थैः सत्कारैः सह योजितानां संतोषं सम्पाद्य राजकार्याणि संसाधनीयानि नहि कश्चिद्यथापराधिने दण्डदानेन सुकर्मानुष्ठानाय पारितोषेण च विना यथावद्राजव्यवस्थां संस्थापयितुं शक्नोत्यत एतत्कर्म सदानुष्ठेयम् ॥ १ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात सेनापती व उपदेशकाच्या कर्तव्याच्या गुणांचे वर्णन करण्याने या सूक्तार्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी. ॥

भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. सेनापती इत्यादी राजपुरुषांनी जे सेवक यथायोग्य कर्म करीत नाहीत त्यांना चांगल्या प्रकारे शिक्षा करावी व जे न्यायानुकूल वागतात त्यांचा सत्कार करून शत्रूंना जिंकून प्रजेचे रक्षण करावे व माणसांना प्रसन्न करून राज्याचे कार्य सिद्ध करावे. कोणताही पुरुष अपराध्याला योग्य शिक्षा व चांगले कर्म करणाऱ्याला योग्य प्रतिष्ठा दिल्याशिवाय राज्याची व्यवस्था स्थिर ठेवू शकत नाही. त्यामुळे या कर्माचे सदैव अनुष्ठान करावे. ॥ १ ॥